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*【तुलसी विवाह-24नवम्बर को】*
*(🌱आईये जानते हैं -तुलसी विवाह की सम्पूर्ण विधि एवं महिमा)*🌱
*ब्रह्मा जी कहते हैं - कार्तिक शुक्ला नवमी को द्वापरयुग का प्रारम्भ हुआ है।*
*अत: वह तिथि दान और उपवास में क्रमशः पूर्वाह्नव्यापिनी तथा पराह्वव्यापिनी हो तो ग्राह्य है।*
*इसी तिथि को (नवमी से एकादशी तक) मनुष्य शास्त्रोक्त विधि से तुलसी के विवाह का उत्सव करे तो उसे कन्यादान का फल होता है।*
*पूर्वकाल में कनक की पुत्री किशोरी ने एकादशी तिथि में सन्ध्या के समय तुलसी की वैवाहिक विधि सम्पन्न की।*
*इससे वह किशोरी वैधव्य दोष से मुक्त हो गयी। अब मैं उसकी विधि बतलाता हूँ : -*
*एक तोला सुवर्ण की भगवान् विष्णु की सुन्दर प्रतिमा तैयार करावे अथवा अपनी शक्ति के अनुसार आधे या चौथाई तोले की ही प्रतिमा बनवा ले।*
*फिर तुलसी और भगवान् विष्णु की प्रतिमा में प्राण प्रतिष्ठा करके स्तुति आदि के द्वारा भगवान् को उठावे।*
*पुनः पुरुषसूक्त के मन्त्रों द्वारा षोडशोपचार से पूजा करे।*
*पहले देश – काल का स्मरण करके गणेश पूजन करे, फिर पुण्याहवाचन कराकर नान्दी श्राद्ध करे।*
*तत्पश्चात् वेदमन्त्रों के उच्चारण और बाजे आदि की ध्वनि के साथ भगवान् विष्णु की प्रतिमा को तुलसी जी के निकट लाकर रखे।*
*प्रतिमा को वस्त्रों से आच्छादित किये रहे। उस समय भगवान् का इस प्रकार आवाहन करे*
आगच्छ भगवन् देव अर्चयिष्यामि केशव। तुभ्यं दास्यामि तुलसी सर्वकामप्रदो भव॥
*'भगवान् केशव ! आइये, देव ! मैं आपकी पूजा करूँगा। आपकी सेवा में तुलसी को समर्पित करूँगा। आप मेरे सम्पूर्ण मनोरथों को पूर्ण करें।'*
*इस प्रकार आवाहन के पश्चात् तीन-तीन बार अर्घ्य, पाद्य और विष्टर का उच्चारण करके इन्हें बारी-बारी से भगवान् को समर्पित करे।*
*फिर आचमनीय पद का तीन बार उच्चारण करके भगवान् को आचमन करावे। इसके बाद कांस्य के पात्र में दही, घी, और मधु रखकर उसे कांस्य के पात्र से ही ढक दे तथा भगवान् को अर्पण करते हुए इस प्रकार कहे - 'वासुदेव!*
*आपको नमस्कार है, यह मधुपर्क ग्रहण कीजिये।'*
*तदनन्तर हरिद्रालेपन और अभ्यङ्ग-कार्य सम्पन्न करके गोधूलि की बेला में तुलसी और श्रीविष्णु का पूजन पृथक्-पृथक् करना चाहिये।*
*दोनों को एक-दूसरे के सम्मुख रखकर मङ्गल-पाठ करे।*
*जब भगवान् सूर्य कुछ-कुछ दिखायी देते हों, तब कन्यादान का सङ्कल्प करे।*
*अपने गोत्र और प्रवर का उच्चारण करके आदि की तीन पीढ़ियों का भी आवर्तन करे।*
*तत्पश्चात् भगवान् से इस प्रकार कहे*
अनादिमध्यनिधन त्रैलोक्यप्रतिपालक। इमां गृहाण तुलसी विवाहविधिनेश्वर ॥ पार्वतीबीजसम्भूतां वृन्दाभस्मनि संस्थिताम्। अनादिमध्यनिधनां वल्लभां ते ददाम्यहम्।। पयोघटैश्च सेवाभिः कन्यावद्धिता मया। त्वत्प्रियां तुलसी तुभ्यं ददामि त्वं गृहाण भोः॥
*'आदि, मध्य और अन्त से रहित त्रिभुवनप्रतिपालक परमेश्वर! इस तुलसी को आप विवाह की विधि से ग्रहण करें।*
*यह पार्वती के बीज से प्रकट हुई है, वृन्दा की भस्म में स्थित रही है तथा आदि, मध्य और अन्त से शून्य है। आपको तुलसी बहुत ही प्रिय है, अत: इसे मैं आपकी सेवा में अर्पित करता हूँ।*
*मैंने जल के घड़ों से सींचकर और अन्य प्रकार की सेवाएँ करके अपनी पुत्री की भाँति इसे पाला, पोसा और बढ़ाया है, आपकी प्रिया तुलसी मैं आपको ही दे रहा हूँ। प्रभो ! आप इसे ग्रहण करें।'*
*इस प्रकार तुलसी का दान करके फिर उन दोनों (तुलसी और विष्णु) - की पूजा करे।*
*विवाह का उत्सव मनाये।*
*सबेरा होने पर पुनः तुलसी और विष्णु का पूजन करे।*
*अग्नि की स्थापना करके उसमें द्वादशाक्षर मन्त्र से खीर, घी, मधु और तिल मिश्रित हवनीय द्रव्य की एक सौ आठ (१०८) आहुति दे।*
*फिर “स्विष्टकृत्' होम करके पूर्णाहुति दे।*
*आचार्य की पूजा करके होम की शेष विधि पूरी करे।*
*उसके बाद भगवान् से इस प्रकार प्रार्थना करे*
*'देव ! प्रभो !! आपकी प्रसन्नता के लिये मैंने यह व्रत किया है। जनार्दन ! इसमें जो न्यूनता हो, वह आपके प्रसाद से पूर्णता को प्राप्त हो जाय।'*
*यदि द्वादशी में रेवती का चौथा चरण बीत रहा हो तो उस समय पारण न करे।*
*जो उस समय भी पारण करता है, वह अपने व्रत को निष्फल कर देता है।*
*भोजन के पश्चात् तुलसी के स्वत: गलकर गिरे हुए पत्तों को खाकर मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है। भोजन के अन्त में ऊख, आँवला और बेर का फल खा लेने से उच्छिष्ट-दोष मिट जाता है।*
*तदनन्तर भगवान् का विसर्जन करते हुए कहे*
*'भगवन् ! आप तुलसी के साथ वैकुण्ठधाम में पधारें। प्रभो ! मेरे द्वारा की हुई पूजा ग्रहण करके आप सदा सन्तुष्ट रहें।'*
*इस प्रकार देवेश्वर विष्णु का विसर्जन करके मूर्ति आदि सब सामग्री आचार्य को अर्पण करे। इससे मनुष्य कृतार्थ हो जाता है।*
*कार्तिक शुक्लपक्ष में एकादशी को प्रात:काल विधि पूर्वक स्नान करके पाँच (५) दिन का व्रत ग्रहण करे।*
*बाणशय्यापर सोये हुए महात्मा भीष्म ने राजधर्म, मोक्षधर्म, और दानधर्म का वर्णन किया, जिसे पाण्डवों के साथ ही भगवान् श्रीकृष्ण ने भी सुना।*
*उससे प्रसन्न होकर भगवान् वासुदेव ने कहा - 'भीष्म ! तुम धन्य हो, धन्य हो, तुमने धर्मों का स्वरूप अच्छी तरह श्रवण कराया है।*
*कार्तिक की एकादशी को तुमने जल के लिये याचना की और अर्जुन ने बाण के वेग से गङ्गाजल प्रस्तुत किया, जिससे तुम्हारे तन, मन, प्राण सन्तुष्ट हुए।*
*इसलिये आज से लेकर पूर्णिमा तक तुम्हें सब लोग अर्घ्यदान से तृप्त करें और मुझको सन्तुष्ट करनेवाले इस भीष्मपञ्चक नामक व्रत का पालन प्रतिवर्ष करते रहें।'*
*निम्नाङ्कित मन्त्र पढ़ कर सव्यभाव से महात्मा भीष्म के लिये तर्पण करना चाहिये। यह भीष्मतर्पण सभी वर्गों के लोगों के लिये कर्तव्य है [*]।*
[*] सव्येनानेन मन्त्रेण तर्पणं सार्चवर्णिकम्। (स्क० पु० वै० का० मा० ३२। १०)
*मन्त्र इस प्रकार है :--*
सत्यव्रताय शुचये गाङ्गेयाय महात्मने। भीष्मायैतद् ददाम्यय॑माजन्मब्रह्मचारिणे ॥
*'आजन्म ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले परम पवित्र सत्यव्रतपरायण गङ्गानन्दन महात्मा भीष्म को मैं यह अर्घ्य देता हूँ।'*
*जो मनुष्य पुत्र की कामना से स्त्री सहित भीष्मपञ्चक व्रत का पालन करता है, वह वर्ष के भीतर ही पुत्र प्राप्त करता है।*
*जो भीष्मपञ्चक व्रत का पालन करता है, उसके द्वारा सब प्रकार के शुभकृत्यों का पालन हो जाता है। यह महापुण्यमय व्रत महापातकों का नाश करनेवाला है।*
*अतः मनुष्यों को प्रयत्नपूर्वक इसका अनुष्ठान करना चाहिये। इसमें भीष्मजी के लिये जलदान और अर्घ्यदान विशेष यत्न से करना चाहिये।*
*जो नीचे लिखे मन्त्र से भीष्मजी के लिये अर्घ्यदान करता है, वह मोक्ष का भागी होता है।*
*अर्घ्य-मन्त्र:--*
वैयाघ्रपदगोत्राय साङ्कतप्रवराय च। अपुत्राय ददाम्येतदुदकं भीष्मवर्मणे॥ वसूनामवताराय शन्तनोरात्मजाय च। अर्घ्यं ददामि भीष्माय आजन्मब्रह्मचारिणे ॥
*'जिनका व्याघ्रपद गोत्र और साङ्कत प्रवर है, उन पुत्र रहित भीष्मवर्मा को मैं यह जल देता हूँ। वसुओं के अवतार, शन्तनु के पुत्र, आजन्म ब्रह्मचारी भीष्म को मैं अर्घ्य देता हूँ।*
*पञ्चगव्य, सुगन्धित चन्दन के जल, चन्दन, उत्तम गन्ध, और कुङ्कम के द्वारा भक्तिपूर्वक सर्वपापहारी श्रीहरि का पूजन करे।*
*कर्पूर और खस मिले हुए कुङ्कम से भगवान् गरुडध्वज के अङ्गों में लेप करे।*
*सुन्दर पुष्प एवं गन्ध, धूप आदि के द्वारा भगवान् की अर्चना करे।*
*पाँच (५) दिनों तक भगवान् के समीप दिन-रात दीपक जलाता रहे।*
*देवाधिदेव भगवान् के लिये उत्तम-से-उत्तम नैवेद्य निवेदन करे।*
*इस प्रकार भगवान् की पूजा-अर्चा, ध्यान और नमस्कार के पश्चात् 'ॐ नमो वासुदेवाय' इस मन्त्र का एक सौ आठ (१०८) बार जप करे।*
*फिर घी मिलाये हुए तिल, चावल और जौ आदि के द्वारा स्वाहा विशिष्ट षडक्षर (ॐ रामाय नमः) मन्त्र से आहुति दे।*
*इसके बाद सायं-सन्ध्या करके भगवान् विष्णु को प्रणाम करे तथा पूर्ववत् मन्त्र जप कर धरती पर ही शयन करे।*
*भक्तिपूर्वक भगवान् मे ही मन को लगावे।*
*व्रत के समय बुद्धिमान् पुरुष ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए पापपूर्ण विचार तथा पाप के कारण भूत मैथुन का परित्याग करे।*
*शाकाहार तथा मुनियों के अन्न से निर्वाह करते हुए सदा भगवान् विष्णु के पूजन में तत्पर रहे।*
*रात्रि में पञ्चगव्य लेकर भोजन करे। इस प्रकार भलीभाँति व्रत को समाप्त करे।*
*ऐसा करने से मनुष्य शास्त्रोक्त फल को पाता है। स्त्रियों को अपने पति की आज्ञा लेकर पुण्य की वृद्धि करनी चाहिये।*
*विधवाओं को भी मोक्षसुख की वृद्धि के लिये व्रत का अनुष्ठान करना चाहिये।*
*पहले अयोध्यापुरी में कोई अतिथि नाम के राजा हो गये हैं।*
*उन्होंने वसिष्ठजी के वचन से इस परम दुर्लभ व्रत का अनुष्ठान किया था, जिससे इस लोक में सम्पूर्ण भोगों का उपभोग करके अन्त में वे भगवान् विष्णु के परम धाम में गये।*
*इस प्रकार नियम, उपवास और पञ्चगव्य से तथा दूध, फल, मूल एवं हविष्यके आहार से निर्वाह करते हुए भीष्मपञ्चकव्रत का पालन करे।*
*पौर्णमासी | आने पर पहले के समान पूजन करके ब्राह्मणों को भोजन करावे और बछड़ेसहित गौ का दान करे।*
*एकादशी से लेकर पूर्णिमा तक पाँच दिनों का भीष्मपञ्चकव्रत समस्त भूमण्डल में प्रसिद्ध है।*
*अन्न भोजन करनेवाले पुरुष के लिये यह व्रत नहीं कहा गया है, इसमें अन्न का निषेध है। इस व्रत का पालन करने पर भगवान् विष्णु शुभ फल प्रदान करते हैं।*
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